अजय बोकिल//मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं वरिष्ठ भाजपा नेता कैलाश जोशी का जाना भारतीय राजनीति की उस पीढ़ी के एक और स्तम्भ का ढह जाना है, जिसने आजादी के संघर्ष को देखा, स्वतंत्र भारत में सियासत के मूल्यों को सींचा, आदर्श और व्यावहारिक राजनीति में तालमेल बिठाने की यथासंभव कोशिश की तथा सियासत को आज की तरह धंधा मानना कभी मन से स्वीकार नहीं किया। धवल धोती कुर्ते में जोशीजी की मंद मुस्कान प्रदेश की राजनीति में इस बात की आश्वस्ति थी कि सियासत में उदारता, सहिष्णुता और सादगी के सभी दीपक बुझ नहीं गए हैं। 90 वर्ष के जोशीजी भारतीय जनता पार्टी में मोदी-शाह युग में लगभग अप्रासंगिक हो गए थे। इसका एक कारण बढ़ती उम्र, शारीरिक अस्वस्थता और नए दौर की राजनीति और उसके तकाजो में उनका मिस फिट होना था। जोशीजी काफी समय से बीमार थे। हालांकि बीते एक दशक में दो-तीन बार ऐसा हुआ कि जोशीजी गंभीर रूप से अस्वस्थ हुए, लेकिन उनकी जीने की इच्छा और एक अनथक स्वयंसेवक का जज्बा उन्हें फिर सक्रिय जीवन में लौटा लाया था। लेकिन इस बार जोशीजी काल को चकमा नहीं दे सके।
जोशीजी मालवा में देवास जिले के हाट पिपल्या के निवासी थे। उनके व्यवहार, बोली और अपनत्व में मालवीपन हमेशा झलकता था। एक प्रसंग याद आता है। (संभवत) आठवीं विधानसभा के दौरान भोपाल में पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन आयोजित हुआ। इसमें देश के सभी राज्यों के विधानसभा अध्यक्ष तथा सचिव आए थे। तब विधानसभा मिंटो हाॅल में ही लगती थी। सम्मेलन के दौरान तीनो दिन खाने का ठेका इंदौर के एक केटरर को दिया गया था। उसने सम्मेलन के दूसरे दिन लंच में दाल-बाफले बनाए। वो जमाना ताम झाम का नहीं था। सभी अतिथियों को विधानसभा परिसर में लगे टेंट में बिछी टाट पट्टी पर बिठाया गया और पत्तल-दोने में भोजन परोसा गया। पूर्वोत्तर, दक्षिण भारत और कुछ उत्तर भारतीय राज्यों के अतिथियों को समझ ही नहीं आया कि यह क्या परोसा गया है और इसे खाएं कैसे? पूर्वोत्तर राज्यों के प्रतिनिधि तो नाराज होकर ..' चिल्लाने लगे-' व्हेयर इज राइस..।' पंडाल में एक टाट पट्टी पर सम्मेलन कवर कर रहे पत्रकारों को भी जिमाया गया था। उनमें से एक मैं भी था। केवल राजस्थान और मप्र के मालवा के प्रतिनिधि ही दाल-बाफले तरीके से खा पा रहे थे। संयोग से कैलाश जोशी मेरे बगल में ही बैठे थे और कढ़ी-चावल का जी भर के आनंद ले रहे थे। थोड़ी देर बाद भोजन पंडाल में शोर शराबा बढ़ने लगा तो जोशीजी ने पंगत में अगल-बगल बैठे दूसरे राज्यों के कुछ प्रतिनिधियों को प्यार से समझाया कि परोसे गए दाल बाफले हैं क्या और इन्हें किस तरह से खाया जाता है। इस बीच चावल भी आ गया और थोड़ी देर बाद बवाल थमा।
जोशी की विशेषता यह रही कि प्रदेश के मुख्योमंत्री से लेकर कई अहम पदों पर रहते हुए भी सहजता और सादगी उनके व्यक्तित्व से अलग नहीं हुई। हालांकि कई बार वे पार्टी कार्यकर्ताअों पर गुस्सा भी हो जाते थे, जमकर डांट भी देते थे, लेकिन भी किसी ने उसका कभी बुरा नहीं माना। क्योंकि उनका क्रोध भी निर्मल था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संस्कारित जोशीजी ने अपनी राजनीतिक यात्रा पूर्ववर्ती जनसंघ के संस्थापक सदस्य के रूप में की थी। वे पहली बार हाटपिपल्या नगर पालिका के अध्यीक्ष चुने गए। वे (अविभाजित) मध्यप्रदेश के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यवमंत्री थे। लेकिन उनकी स्वीकार्यता सभी दलों में थी। एक अज्ञात बीमारी के कारण उन्हें 6 माह बाद ही पद से हटना पड़ा और वीरेन्द्र कुमार सखलेचा के मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री बनना पड़ा। लेकिन उन्होंने इसे भी स्वीकार किया। नेता प्रतिपक्ष के रूप में वो सदन में अपनी बात प्रभावी और धाराप्रवाह ढंग से रखते थे। इस दृष्टि से 9 वीं विधानसभा सभी प्रमुख दलों के दिग्गज नेताअोंका जीवंत जमावड़ा थी। उनमें भी कैलाश जोशी एक अलग सितारे की तरह चमकते थे।
1998 में जोशीजी राजगढ़ से कांग्रेस के लक्ष्मणसिंह के खिलाफ सांसद का चुनाव लड़े। चुनाव कवरेज के दौरान पता चला कि जोशी के प्रति वहां के लगभग हर मतदाता में आदर का भाव था। हालांकि जोशीजी यह चुनाव हार गए थे। बाद में भाजपा ने उन्हें राज्यसभा भेजा। सहजता जोशी के स्वभाव का ऐसा अलंकार थी, जो उनसे कभी जुदा नहीं हुई। एक और किस्सा मौजूं है। भोपाल में अरेरा काॅलोनी स्थित प्रदेश भाजपा के नए कार्यालय भवन को कुछ अर्सा ही हुआ था। बतौर रिपोर्टर मेरे पास सूचना आई कि कैलाश जोशी किसी अहम मुद्दे पर पत्रकार वार्ता करना चाहते हैं। सूचना यही थी कि पत्रकार वार्ता जोशीजी के 74 बंगले स्थित आवास पर होगी। मैं तय समय पर पहुंचा तो जोशीजी गेट पर ही किसी का बेसब्री से इंतजार करते दिखे। उनके हाथ में फाइलें भी थीं। लेकिन बंगले पर और कोई हलचल नहीं थी। मुझे हैरानी हुई। मैंने स्कूटर बंगले के सामने रोकी तो जोशीजी ने आवाज दी अरे, तुम पत्रकारवार्ता के लिए आए हो? मैंने कहा-जी। वो तुरंत बोले- फिर तो अच्छा हुआ, तुम मुझे बीजेपी दफ्तर ले चलो। मुझे तब समझ आया कि पत्रकार वार्ता का स्थान अचानक बदल दिया गया है। मैंने जोशीजी से कहा- चलिए। इतना कहने के पहले ही जोशीजी स्कूटर की पिछली सीट पर आराम से बैठ चुके थे और बोले-चलो। उधर बीजेपी दफ्तचर में जोशीजी का प्रेस वाले इंतजार कर रहे थे। मेरे स्कूटर की पिछली सीट पर जोशीजी को बैठे देख सबको आश्चर्य हुआ। लेकिन जोशीजी अपनी सहज मुस्कान के साथ उतरे और पत्रकार वार्ता शुरू कर दी।
मप्र की राजनीति में जोशीजी को 'संत राजनेता' माना जाता है। इससे ऐसा लगता है कि संतत्व राजनीति में कोई दुर्लभ गुण है। आज की राजनीतिक शैली, उसके दुराग्रह, धूर्तता, दुरभिसंधियों और मूल्यों की मनमाफिक व्याख्या की आम होती प्रवृत्ति से तो यही लगता है कि अब कैलाश जोशी बनना एक दुष्कर कार्य है। राजनीति में उन जैसे लोग अब बिरले ही बचे हैं। आजादी के 70 साल बाद देश ने जिन तत्वों को तिलांजलि दे दी है, वे हैं सादगी, सत्यता और शुचिता। जोशी ने व्यक्तिगत स्वार्थों को सार्वजनिक मूल्यों पर तरजीह कभी नहीं दी। विधानसभा में अपनी अभिरूचियों का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा था- अध्यात्म, भारतीय विधाअों का अध्ययन तथा समाज सेवा। यह कोई खानापूर्ति भर नहीं थी। आध्यात्मिकता जोशीजी के आचरण में निहित थी। आने वाली पीढ़ी जोशी जो कम से कम इस बात के लिए तो याद करेगी ही कि राजनीति के दलदल में भी कमल की तरह खिलते हुए जीया जा सकता है। लेकिन इसके लिए एक बुनियादी नैतिकता चाहिए, जो जोशीजी में संस्कारों की तरह घुली हुई थी। उन्हें सादर श्रद्धांजलि।
वरिष्ठ संपादक
राजनीति में सहिेष्णुता, सहजता और सादगी की आश्वस्ति थे कैलाश जोशी